विकृत चिंतन - रोग-शोक का मूलभूत कारण

विकृत चिंतन : रोग-शोक का मूलभूत कारण

महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कोई व्यक्ति कितनी लम्बी जिन्दगी जीता है । महत्त्वपूर्ण यह है कि उसका जीवन कितना सार्थक और सोद्देश्य है । साधन-सुविधा-सम्पन्न लम्बा जीवन भी एक दुर्बह भार बन जाता है । यदि उसके साथ आदर्श और सिद्धान्त न जुड़े हों तो और अब तो यह भी अनुभव किया जाने लगा है कि व्यक्ति अपने जीवन की व्यर्थता से इतना ऊब भी सकता है कि किसी भी क्षण आत्महत्या का निश्चय कर बैठे । गौरव और गरिमा तो इस बात में है कि व्यक्ति उच्च मानवी आदर्शों, उत्कृष्ट आस्थाओं तथा आदर्शवादी मान्यताओं को अपनाते हुए आत्मा की उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्न करता रहे । तभी जीवन का आनन्द है और जीने में संतोष है । अन्यथा उद्देश्य को भूलकर की गयी यात्रा का अन्त कहाँ होगा,यत्री उसमें अपने आप को कहाँ नष्ट कर लेगा अथवा कब अपनी यात्रा को व्यर्थ समझकर खीझ उठेगा, कहना कठिन है ।

1. आकांक्षाओं को विकृत न होने दें
2. समस्त विग्रहों की जड़ अहंकार
3. समस्त दुखों का कारण विकृत चिंतन
4. अपने मनोबल को बढाएँ- गिराएँ नहीं
5. मस्तिष्क को स्वच्छंद न फिरनें दें
6. भोगवादी चिंतन की शैली को पलटना होगा
7. दूरदर्शिता का पल्ला कभी न छोड़ें
8. अपनी सहजता कभी न गवाएँ

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1 comments :

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Kamal
admin
28 January 2017 at 11:58 ×

बहुत प्रेरणादायी पुस्तक,
धन्यवाद

Congrats bro Kamal you got PERTAMAX...! hehehehe...
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